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पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने 992 दिन की देरी माफ करने से इनकार किया, खाद्य आपूर्ति विभाग की अपील को नौकरशाही बहाने बताकर खारिज किया

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने नौकरशाही के बहानों को अस्वीकार्य बताते हुए और सार्वजनिक मुकदमेबाजी में जवाबदेही पर जोर देते हुए, पंजाब सरकार की 992 दिन की देरी वाली अपील को खारिज कर दिया। - प्रधान सचिव, खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले विभाग, पंजाब एवं अन्य बनाम वरिंदर कुमार जैन

Shivam Y.
पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने 992 दिन की देरी माफ करने से इनकार किया, खाद्य आपूर्ति विभाग की अपील को नौकरशाही बहाने बताकर खारिज किया

चंडीगढ़, 25 सितंबर - पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने पंजाब सरकार के खाद्य, नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामले विभाग के प्रधान सचिव द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया है, जिसमें 992 दिनों की देरी को माफ करने की मांग की गई थी। न्यायमूर्ति सुदीप्ति शर्मा ने आदेश सुनाते हुए सख्त लहजे में कहा कि "देरी को उदारता या दया के आधार पर माफ नहीं किया जा सकता।"

पृष्ठभूमि

मामला विभाग द्वारा अपने खिलाफ आए एक पुराने फैसले को चुनौती देने से जुड़ा था। हालांकि, अपील लगभग तीन साल की देरी से हाईकोर्ट में दाखिल की गई। 1963 के सीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत देरी माफ करने की मांग करते हुए राज्य सरकार ने तर्क दिया कि प्रक्रियागत कारणों और प्रशासनिक अड़चनों की वजह से यह देरी हुई।

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न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि सरकार द्वारा दी गई सफाई अस्पष्ट थी और "पर्याप्त कारण" स्थापित करने में विफल रही। उन्होंने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि सरकारी विभाग अत्यधिक देरी को न्यायोचित ठहराने के लिए नौकरशाही अक्षमता का सहारा नहीं ले सकते।

अदालत के अवलोकन

सुनवाई के दौरान अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री अनिमेष शर्मा पंजाब सरकार की ओर से उपस्थित हुए। हालांकि अदालत उनके तर्कों से असंतुष्ट रही। न्यायमूर्ति शर्मा ने मणिबेन देवराज शाह बनाम बृहन्मुंबई नगर निगम (2012) के महत्वपूर्ण फैसले का हवाला देते हुए कहा कि सीमा संबंधी कानून केवल तकनीकी औपचारिकता नहीं है बल्कि समय पर न्याय सुनिश्चित करने का साधन है।

उन्होंने टिप्पणी की-

"सीमा अधिनियम सार्वजनिक नीति पर आधारित है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वादकारी अपने अधिकारों पर सोए नहीं रहें।"

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उन्होंने आगे लंका वेंकटेश्वरलु बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2011) के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा कि

“‘उदार दृष्टिकोण’ और ‘पर्याप्त न्याय’ जैसे शब्दों को इतना खींचा नहीं जा सकता कि वे विधायिका द्वारा निर्धारित सीमा के प्रावधानों को मिटा दें।”

अदालत ने हाल के सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों - थिरुनागलिंगम बनाम लिंगेश्वरन (2025) और भारत संघ बनाम जहांगीर बैरामजी जीजीभॉय (2024) - का हवाला देते हुए कहा कि नौकरशाही लालफीताशाही अब स्वीकार्य बहाना नहीं है।

न्यायमूर्ति शर्मा ने जोर देते हुए कहा कि

“कानून सबको समान रोशनी में रखता है और कुछ लोगों के लाभ के लिए उसे मोड़ा नहीं जा सकता।” उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के संदेश को दोहराते हुए कहा कि देरी को माफ करना “अक्षमता को संस्थागत रूप देने और जवाबदेही को खत्म करने” जैसा होगा।

निर्णय

आवेदन की जांच के बाद हाईकोर्ट ने पाया कि राज्य सरकार देरी के लिए कोई ठोस और वास्तविक कारण नहीं बता सकी। अदालत ने कहा कि "सिर्फ सामान्य और अस्पष्ट कारण देना पर्याप्त कारण नहीं माना जा सकता।"

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न्यायमूर्ति शर्मा ने सार्वजनिक हित का हवाला देते हुए कहा कि यह "समयबद्ध सरकारी कार्रवाई से बेहतर तरीके से सुरक्षित रहता है, न कि नौकरशाही उदासीनता को माफ करके।"

कड़े शब्दों में उन्होंने कहा,

“हालांकि अदालतें पर्याप्त न्याय के पक्ष में झुकती हैं, पर वे ऐसा सीमा कानून को दरकिनार करके या दूसरी पार्टी को गंभीर हानि पहुंचाकर नहीं कर सकतीं।”

इसके परिणामस्वरूप, देरी माफ करने का आवेदन खारिज कर दिया गया, और साथ ही मुख्य अपील - RSA-3244-2025 - भी निरस्त कर दी गई।

यह आदेश एक बार फिर यह याद दिलाता है कि न्यायपालिका की सहनशीलता उन सरकारी विभागों के प्रति कम होती जा रही है जो प्रशासनिक सुस्ती का बहाना बनाते हैं। फैसले से स्पष्ट है कि सरकारी कार्यालयों से उतनी ही - बल्कि अधिक - सतर्कता और तत्परता की अपेक्षा की जाती है जितनी किसी निजी वादी से।

Case Title: The Principal Secretary, Food Civil Supplies and Consumer Affairs Department, Punjab & Others vs. Varinder Kumar Jain

Case No.: RSA-3244-2025 (O&M)

Date of Decision: 25 September 2025

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