एक अहम फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उस व्यक्ति को बरी कर दिया जिसे 1983 के झांसी हत्या मामले में चार दशक से अधिक समय से उम्रकैद की सजा काटनी पड़ रही थी। जस्टिस मदन पाल सिंह और जस्टिस सुमित्र दयाल सिंह की खंडपीठ ने विजय उर्फ बब्बन की सजा को पलट दिया, जिसे झांसी सत्र न्यायालय ने 1984 में धारा
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 17 दिसंबर 1983 की घटना से जुड़ा है, जब झांसी के खुशिपुरा इलाके में बशीर शाह की चाकू मारकर हत्या कर दी गई थी। मृतक के भाई बहादुर शाह द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर में आरोप था कि नरेंद्र कुमार और विजय उर्फ बब्बन ने बशीर का रास्ता रोका। विवाद का कारण यह था कि बशीर, नरेंद्र के एक महिला कांती के घर आने-जाने का विरोध करता था। इसी दौरान नरेंद्र ने चाकू से हमला कर दिया, जबकि विजय पर आरोप था कि उसने “मारो साले को” कहकर उकसाया। बाद में बशीर को मेडिकल कॉलेज ले जाया गया जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
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सत्र न्यायालय ने दोनों को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। नरेंद्र की अपील 2018 में उसकी मृत्यु के बाद समाप्त हो गई, जबकि विजय ने अपनी कानूनी लड़ाई जारी रखी।
हाईकोर्ट ने गवाहों के बयान और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का अध्ययन करने के बाद पाया कि विजय के खिलाफ सबूत कमजोर और विरोधाभासी थे। अदालत ने कहा कि एफआईआर में विजय द्वारा दी गई कथित धमकियों का उल्लेख ही नहीं था, बल्कि यह बातें बाद में मुकदमे के दौरान जोड़ी गईं।
फैसले में अदालत ने कहा:
"उकसावे का सबूत अपने आप में बहुत कमजोर माना जाता है… जब तक यह स्पष्ट, ठोस और विश्वसनीय न हो, केवल इसके आधार पर दोषसिद्धि नहीं हो सकती।"
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न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल घटना स्थल पर मौजूद रहना और गाली-गलौज करना "समान अभिप्राय" (Common Intention) साबित नहीं करता। चूँकि विजय ने मृतक पर कोई हमला नहीं किया, इसलिए उसकी सजा टिक नहीं सकती।
सत्र न्यायालय का आदेश रद्द करते हुए हाईकोर्ट ने विजय को सभी आरोपों से बरी कर दिया और उसकी तत्काल रिहाई का निर्देश दिया, बशर्ते वह किसी अन्य मामले में वांछित न हो। अदालत ने अमीकस क्यूरी अधिवक्ता राजीव लोचन शुक्ला की सराहना की और उन्हें 25,000 रुपये मानदेय देने का आदेश दिया।
केस का शीर्षक: विजई @ बब्बन बनाम यूपी राज्य।
केस संख्या: 1984 की आपराधिक अपील संख्या 2977










