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दशकों से चले आ रहे वन अनुबंध विवाद के बाद उड़ीसा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को लकड़ी देने या बाजार मूल्य चुकाने का आदेश दिया

उदयनाथ साहू (मृत) का प्रतिनिधित्व एलआरएस एवं अन्य बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य - उड़ीसा उच्च न्यायालय ने 50 वर्ष पुराने वन अनुबंध विवाद में राज्य को लकड़ियां देने या बाजार मूल्य का भुगतान करने का निर्देश दिया, तथा 2 लाख रुपये का अनुकरणीय जुर्माना लगाया।

Shivam Y.
दशकों से चले आ रहे वन अनुबंध विवाद के बाद उड़ीसा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को लकड़ी देने या बाजार मूल्य चुकाने का आदेश दिया

लगभग पचास साल से खिंच रही अदालती लड़ाई को खत्म करते हुए कटक स्थित ओडिशा हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को सख्त आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि सरकार या तो विवादित अनुबंध के तहत तय लकड़ी ठेकेदार के वारिसों को उपलब्ध कराए, या फिर उसका वर्तमान बाज़ार मूल्य चुकाए। न्यायमूर्ति दिक्षित कृष्ण श्रीपाद ने 8 सितंबर 2025 को फ़ैसला सुनाते हुए टिप्पणी की कि विलंबित न्याय मानवाधिकार उल्लंघन का घोर रूप है।

पृष्ठभूमि

मामला 1970 के दशक का है। उस समय उदयनाथ साहू और आर.एस. भाटिया नामक दो ठेकेदारों ने करंजिया वन प्रभाग में पट्टे हासिल किए थे। आपसी विवाद हाईकोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा। 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों के बीच हुए समझौते को दर्ज कर लिया था, जिसके तहत राज्य सरकार को पेड़ों की पहचान कर लकड़ी उपलब्ध करानी थी।

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व्यवहार में यह आसान नहीं रहा। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 और बाद में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 लागू होने के कारण सरकार ने पेड़ काटने से इनकार कर दिया। आदेश पालन की बजाय मामला लगातार नए मुकदमों, अवमानना याचिकाओं और हलफ़नामों में उलझता चला गया। इस दौरान साहू का निधन हो गया और उनके कानूनी वारिसों को लड़ाई आगे बढ़ानी पड़ी।

अदालत की टिप्पणियाँ

पीठ ने सरकार के रवैये पर सख्त टिप्पणी की। न्यायमूर्ति श्रीपाद ने कहा, अदालत के आदेश फोटो फ्रेम के लिए नहीं होते, उनका पालन होना चाहिए।

उन्होंने यह दलील खारिज कर दी कि समझौते पर सरकार की बाध्यता नहीं है। अदालत ने साफ कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने सरकार पर स्पष्ट जिम्मेदारी डाली थी।

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राज्य का यह तर्क कि बाद के वन संरक्षण निर्णयों के कारण अनुबंध निरस्त हो गया, अदालत ने ठुकरा दिया। न्यायमूर्ति ने याद दिलाया कि 1980 का अधिनियम और 1972 का अधिनियम पहले से ही लागू थे जब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था। दशकों बाद इन्हीं आधारों पर आपत्ति दोहराना, अदालत के अनुसार, सिर्फ आदेश को निष्प्रभावी बनाने की कोशिश है, अगर धोखा नहीं।

हालांकि अदालत ने यह भी माना कि आज जीवित पेड़ों की कटाई व्यावहारिक रूप से कठिन है। उन्होंने संकेत दिया कि ऐसे हालात में अदालतें “वैकल्पिक राहत” देने का रास्ता निकाल सकती हैं।

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निर्णय

कानून और व्यावहारिकता में संतुलन बैठाते हुए हाईकोर्ट ने तीन महीने की समय सीमा तय की। आदेश के अनुसार:

  1. लकड़ी की आपूर्ति करें – ओडिशा फॉरेस्ट डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के ज़रिए, बशर्ते डिक्री होल्डर बकाया राशि 1997 से 6% ब्याज समेत चुका दें; या
  2. वर्तमान बाज़ार मूल्य का भुगतान करें – लकड़ी की अनुमानित मात्रा के बराबर, बकाया और ब्याज समायोजन के बाद;

इसके साथ ही अदालत ने राज्य पर 2 लाख रुपये का दंडात्मक खर्च भी लगाया, जिसे जिम्मेदार अधिकारियों से वसूला जाएगा। अदालत ने यह भी कहा कि आदेश लागू करने में दिक्कत आए तो पक्षकार आवश्यक अर्जी दाख़िल कर सकते हैं।

इस तरह न्यायमूर्ति श्रीपाद ने मामला निपटा दिया, जिससे साहू परिवार को उम्मीद जगी है कि शायद अब उन्हें उस कानूनी लड़ाई का फल मिलेगा, जो 1970 के दशक में शुरू हुई थी।

केस का शीर्षक: उदयनाथ साहू (मृत) जिनका प्रतिनिधित्व कानूनी सलाहकार एवं अन्य बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य

केस संख्या: निष्पादन केस संख्या 2, 1997

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